जमशेदपुर : टाटा स्टील की उत्पत्ति, औद्योगिकीकरण के युग में कदम रखने और इस प्रकार, भारत को आर्थिक स्वतंत्रता दिलाने के लिए जमशेदजी नसरवानजी टाटा के प्रयास में निहित है. उन्हें थमस कार्लाइल (एक ब्रिटिश निबंधकार, व्यंग्यकार, और इतिहासकार, जिनकी कृतियां विक्टोरियन युग के दौरान बेहद प्रभावशाली थी) का यह कथन कि जो राष्ट्र लोहे पर नियंत्रण हासिल करता है, वह शीघ्र ही सोने पर नियंत्रण प्राप्त कर लेता है, ने काफी प्रभावित किया. वर्ष 1904 में पीएन बोस द्वारा जेएन टाटा को लिखे गए ऐतिहासिक पत्र में ओड़िशा के मयूरभंज के लौह अयस्क भंडार के बारे में बात की गई थी. इस तरह से, पूर्वी भारत के आदिवासी क्षेत्र में टाटा अभियान दल का प्रवेश हुआ, जो अब तक भारत के पहले स्टील प्लांट की स्थापना के लिए संभावित स्थान की खोज कर रहा था. इस परियोजना के विशेषज्ञ यूएसए (अमेरिका) से आए थे और चार्ल्स पेज पेरिन इसके मुख्य सलाहकार थे. सर दोराबजी टाटा का जन्म 27 अगस्त, 1859 को हुआ था. वे जेएन टाटा के सबसे बड़े पुत्र थे.
उन्होंने अपने पिता जेएन टाटा की दूरदृष्टि को अमली जामा पहनाने का बीड़ा उठाया. वो सर दोराबजी टाटा ही थे, जिन्होंने बैल-गाड़ियों पर सवार होकर लौह अयस्क के लिए मय भारत की खोज की थी. उनके नाम कई उपलब्धियां हैं और फलत: 1910 में उन्हें नाइट की पदवी मिली. सर दोराबजी टाटा ने स्टील और पॉवर को मजबूत कर ‘विजन ऑफ इंडिया’ को आकार दिया. उन्होंने पूरे राष्ट्र से भारत में स्टील प्लांट बनाने की भव्य योजना का हिस्सा बनने की अपील की. उन्होंने 80,000 भारतीयों को औद्योगीकिकरण की इस यात्रा में शामिल होने के लिए प्रेरित किया. ’स्वदेशी’ (भारतीय) इकाई के लिए किए गए इस आधार के जबरदस्त प्रतिक्रिया मिली और तीन सप्ताह के भीतर पूरी राशि जुटा ली गयी. यथोचित उपक्रम के बाद, 26 अगस्त 1907 को 2,31,75,000 रुपये की मूल पूंजी के साथ भारत में टाटा आयरन एंड स्टील कंपनी (टिस्को) के रूप में टाटा स्टील को पंजीकृत किया गया. 1908 में वर्क्स का निर्माण शुरू हुआ और 16 फरवरी, 1912 को स्टील का उत्पादन शुरू हुआ.
1907 में स्थापना से लेकर 1932 तक कंपनी के चेयरमैन के रूप में सर दोराबजी टाटा ने देश के पहले स्टील प्लांट के निर्माण के लिए लगभग 25 वर्षो तक, जमीनी स्तर से लेकर ऊपर तक अथक परिश्रम किया. उन्होंने हर चुनौती में कठिनाइयों का सामना करने का अवसर देखा और इसमें अपना सर्वस्व लगा दिया. सर दोराबजी टाटा श्रमिकों के कल्याण में गहरी रुचि रखते थे. अपने कर्मचारियों और श्रमिकों के प्रति व्यवहार को लेकर वे हमेशा जेएन टाटा द्वारा निरंतरित आदर्श आचरणों के प्रति सजग रहे. 1920 में श्रमिक हड़ताल के दौरान वे जमशेदपुर आए और श्रमिकों की शिकायतों को सुना. उनके कारण ही श्रमिकों ने हड़ताल समाप्त की. सर दोराबजी टाटा ने 1924 में अपनी सबसे बड़ी चुनौती का सामना किया, जब टाटा स्टील का महत्वाकांक्षी विस्तार कार्यक्रम विपरीत परिस्थितियों में उलझ गया. यह उनकी दृढ़ता थी, जिसने युद्ध के बाद की अवधि में पांच गुना विस्तार कार्यक्रम पर काम करने के लिए कंपनी को आगे बढ़ने का हौसला प्रदान किया.
कर्मचारियों को वेतन देने के लिए भी पर्याप्त पैसे नहीं थे. फिर भी, कभी न हार मानने वाले अपने हौंसले को दृढ़ कर सर दोराबजी टाटा ने अपनी पूरी व्यक्तिगत संपत्ति गिरवी रख दी. इसमें उनका मोती जड़ित टाईपिन और उनकी पत्नी का एक जुबिली डायमंड भी शामिल था, जो ऐतिहासिक हीरा कोहिनूर के आकार से दोगुना था. इंपीरियल बैंक ने उन्हें एक करोड़ रुपये का व्यक्तिगत ऋण दिया, जिसका इस्तेमाल उन्होंने कंपनी को इस कठिन परिस्थिति से बाहर निकालने के लिए किया और इसे मिटने से बचा लिया. वे इस बात से पूरी तरह वाकिफ थे कि कंपनी में बनने वाला हर टन स्टील, टाटा स्टील की मिलों, कोलियरीज, माइंस, स्टॉकयार्ड और कार्यालयों से हजारों की मेहनत का प्रतिफल है. इन सभी को यान में रखते हुए उन्होंने कानूनी रूप से अनिवार्य होने से पहले 8 घंटे का कार्य-दिवस, मातृत्व अवकाश, भविष्य निधि, दुर्घटना मुआवजा, नि:शुल्क चिकित्सा सहायता और कई अन्य कल्याणकारी उपायों की शुरुआत की, जो पहले कहीं नहीं थे. मानव की उन्नति के लिए अथक परिश्रम करने के बाद उन्होंने अपनी सारी संपत्ति एक ट्रस्ट में डाल दी, जिसने शिक्षा के विकास को बढ़ावा दिया, जिससे कई नवाचारों में योगदान मिला और जो परिणामस्वरूप, भारत को प्रगति के पथ पर आगे ले गया. उन्होंने कैंसर अनुसंधान की शुरुआत की, इंडियन इंस्टीच्यूट ऑफ साइंस की स्थापना की और मौलिक अनुसंधान व सामाजिक विज्ञान के अध्ययन को प्रोत्साहन प्रदान किया.
बाद में, ट्रस्ट ने कला-सौंदर्य के विकास को प्रोत्साहित करने के लिए नेशनल सेंटर फर परफार्मिंग आर्ट्स की स्थापना में मदद की. अपने लड़कपन से एक उत्साही खिलाड़ी दोराबजी एक उम्दा घुड़सवार थे और एक बार युवावस्था में वे केवल नौ घंटे में बाम्बे से पुणे पहुंच गए. उन्होंने खुद को एक टेनिस खिलाड़ी के रूप में भी प्रतिस्थापित किया और कैंब्रिज में पढ़ाई के दौरान अपने कॉलेज के लिए फुटबॉल और क्रिकेट खेला. सर दोराबजी टाटा ने 1920 में चार एथलीटों और दो पहलवानों का चयन कर उन्हें अपनी खर्च पर एंटवर्प ओलंपिक खेल में हिस्सा लेने के लिए भेजा और इस प्रकार अंतरराष्ट्रीय खेल की दुनिया में भारत को प्रवेश दिलाया. उस समय भारत में कोई ओलंपिक निकाय भी नहीं था. इंडियन ओलंपिक एसोसिएशन के अध्यक्ष के रूप में उन्होंने 1924 में पेरिस ओलंपिक के लिए भारतीय दल का वित्त पोषण किया. इसी वर्ष उन्हें इंटरनेशनल ओलंपिक कमिटी का सदस्य चुना गया. 1928 के एम्स्टर्डम ओलंपिक में भारत ने पहली बार हॉकी में स्वर्ण पदक जीता. उन्होंने बेहिसाब दान दिए और जो भी दिए, दिल खोल कर दिए. उन्होंने 1932 में प्रथम संस्थापक दिवस समारोह के अवसर पर जमशेदपुर में श्रमिकों के लिए उपहार स्वरूप 25,000 दिए. वंचित लोगों की मदद और सहायता के लिए उन्होंने एक धर्मार्थ ट्रस्ट की स्थापना की, जिसमें तीन करोड़ रुपये से अधिक धन था.
सर दोराबजी टाटा को ’जमशेदपुर का वास्तुकार’ के रूप में जाना जाता है, जिसे उन्होंने कर्मचारियों को गुणवत्तापूर्ण जीवन प्रदान करने के अपने पिता की सोच दृष्टिकोण (विजन) के अनुरूप बनाया. जब उन्होंने 1907 में कंपनी की स्थापना की, तो साकची सिर्फ एक झाड़-जंगल था. 10 वर्ष के बाद टाउनशिप में 50,000 निवासी थे. 1,500 एकड़ जमीन की आवश्यकता वाले उद्योग को चलाने के लिए टाटा ने 15,000 एकड़ के शहर का प्रबंधन किया. आज की टाटा स्टील उद्यमिता और आत्मनिर्भरता के प्रति उनके जुनून का प्रतीक है. कंपनी उनकी 161वीं जयंती पर सर दोराबजी टाटा को सलाम करती है. सर दोराबजी टाटा जैसे दूरदर्शी निष्ठावान हस्ती के कार्यो और जुनून से प्रेरित होकर टाटा स्टील निरंतर उत्घ्ष्टता क े बेंचमार्क निर्धारित कर रही है.