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देश को टाटा का तोहफा देने वाले सिर्फ एक-सर दोराबजी टाटा, पिता के सपनों को किया था साकार, देशहित व कर्मचारी के वेतन के लिए पत्नी का गहना तक रख दी थी गिरवीं

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जमशेदपुर : वैसे तो टाटा घराने के संस्थापक जमशेदजी नसरवानजी टाटा ही थे, लेकिन अगर देश को टाटा समूह का तोहफा अगर किसी शख्स ने दिया तो वह है जमशेदजी नसरवानजी टाटा के सुपुत्र सर दोराबजी टाटा. 27 अगस्त को उनका जन्मदिन मनाया जायेगा. इस कारण लोग उनके संस्कारों और कर्तव्यनिष्ठा को याद करेंगे. टाटा समूह की स्थापना का सपना तो जमशेदजी नसरवानजी टाटा ने देखा था और साकार करने के लिए आगे बढ़ रहे थे, लेकिन तब तक उनका निधन हो गया था. उनके बेटे सर दोराबजी टाटा ने उनकी सल्तनत को संभाली और आज टाटा स्टील हो या टाटा मोटर्स जैसी देश में टाटा समूह को स्थापित किया. सामाजिक दायित्वों के तहत उन्होंने देश को टाटा समूह का अनमोल तोहफा दिया, जिसका लाभ लाखों करोड़ों देशवासी उठा रहे है. भारतीय संस्कृति धरोहर और उद्योग जगत के पुरोधा सर जमशेदजी टाटा के प्रथम पुत्र सर दोराबजी टाटा का जन्म 27 अगस्त 1859 को हुआ था. पिता के मृत्यु के पश्चात सर दोराबजी टाटा को अपने पिता के व्यवसाय कौशल के अतिरिक्त उनके निस्वार्थ सेवा भावना और समाज के प्रति अटूट प्रेम तथा जिस समाज से उन्होंने धन प्राप्त किया, उस समाज को यथासंभव अपने धन उपार्जन एवं जरूरतमंदों की सेवा के लिए उसका एक अच्छा खासा हिस्सा समाज को वापस करने की कला और साधना भी प्राप्त की. 1897 में सर दोराबजी टाटा ने एचजे भाभा की पुत्री मेहरबाई से शादी की. श्रीमती मेहरबाई एक अति उत्साही एवं संवेदनशील महिला थी और अपने पति की तरह अपने जीवन काल में सामाजिक दायित्व को निभाने के प्रति काफी सजग थी. महिलाओं के लिए उच्च शिक्षा में विश्वास करती थी तथा पर्दा व्यवस्था एवं छुआछूत के खिलाफ थी और हमेशा शिक्षा के प्रति अपनी अकूट श्रद्धा को ध्यान में रखते हुए सर दोराबजी टाटा ने 27 मई 1909 में भारतीय विज्ञान संस्थान बैंगलोर की स्थापना की और अपनी ओर से संस्था को भरपूर आर्थिक सहयोग किया. इतना ही नहीं कैंब्रिज विश्वविद्यालय तथा भंडारकर ओरिएंटल रिसर्च में संस्कृत अध्ययन के लिए भी सहयोग किया. खेल से अटूट प्रेम था और उनकी परोपकारी गतिविधियां अपने आप में इसको दर्शाती है. ओलंपिक परिषद के अध्यक्ष के नाते सर दोराबजी टाटा ने 1924 में पेरिस ओलंपियाड के लिए भारतीय दल को आर्थिक सहायता दी| सर दोराबजी टाटा ने अपने धन के रचनात्मक प्रयोग पर विश्वास किया और 1932 में इन संपत्तियों के अतिरिक्त उन्होंने प्रसिद्ध जुबिली डायमंड सहित अपनी धर्मपत्नी का आभूषण भी दान के रूप में दिया, उस समय उस संपत्ति का मूल्य करीब 10 बिलियन था. शिक्षा,अनुसंधान राहत कार्य तथा अन्य धर्मात उद्देश्यों की उन्नति उके लिए खर्च करने का निर्देश था. स्थान राष्ट्रीयता तथा पंथ के भेदभाव बिना इस धन को खर्च करने का प्रावधान था. मुंबई में प्रिंस ऑफ वेल्स म्यूजियम को उन्होंने अपने चित्र प्रतिमा और कलाकृतियों समुचित रखरखाव के लिए दान में दिया. सर दोराबजी टाटा ने अपने पिता जमशेदजी टाटा, जो भारती उद्योग जगत के पुरोधा थे, उनके सपनों को साकार करने के लिए अपनी संकल्पित और समर्पित प्रयास के साथ पूरा किया और आगे बढ़कर सामाजिक दायित्व के अंतर्गत बहुत से काम करने की योजना और ख्वाहिश थी परंतु इसी बीच 3 जून 1932 को इनका देहांत हो गया. भगवान इस तरह के पुरुषों को भारतीय भूमि पर अवतरित कराते रहें तो हम धन के अतिरिक्त भारतीय संस्कृति संस्कार धरोहर एवं परंपरा को कायम रखने में सक्षम होंगे.

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