रांची/जमशेदपुर : कोडरमा के डीसी रमेश घोलप. वैसे तो वे इंडियन एडमिनिस्ट्रेटिव सर्विस (आइएएस) में है और यूपीएससी पास करने के बाद झारखंड कैडर के आइएएस बने है, लेकिन उनके पीछे की जिंदगी काफी दर्द भरी रही है. उनके पिता शराब के नशे के आदि थे. पिता की मौत हो गयी थी. मां कमाने के लिए चूड़ियां बेचती थी. मां के साथ वे भी चूड़िया बेचते थे और पढ़ाई करते करते आज जिले के कलेक्टर बन गये. रमेश घोलप सरायकेला-खरसावां जिले में भी कुछ दिनों तक डीसी रहे थे. रमेश घोलप कोडरमा के जब डीसी बने तो अपनी मां को लेकर अपने डीसी ऑफिस गये. बेटे के कलेक्टर का दफ्तर में घुसकर मां के आंसू छलक पड़े. उन्होंने अपनी मां को डीसी ऑफिस लाकर मिली खुशियों का इजहार किया तो उन्होंने एक ऐसा संदेश दिया, जिसको हर व्यक्ति को जरूर पड़ना चाहिए, उनका फेसबुक पोस्ट को http://www.sharpbharat.com में अक्षरश: प्रकाशित कर रहा है. (नीचे पढ़े पूरी रिपोर्ट)
पिता शराब के आदि थे, पंक्चर की दुकान थी, मां बेचती थी चूड़ियां
रमेश घोलप मूलरूप से महाराष्ट्र के रहने वाले है. उनके पिता की पंचर की दुकान थे, जो नशे के आदि थे और उनकी मौत हो गयी थी. घर में पढ़ाई का माहौल नहीं था, लेकिन मां चूड़ी बेचकर अपने परिवार को चलाती थी और अपने बेटे को सबसे ऊपर ले गयी. रमेश को बचपन में ही पोलियो हो गया था, जिसके बाद बायीं पैर में उनको चलने में दिक्कत होने लगी, लेकिन उनके कदम कभी नहीं रुके. रमेश के पिता गोरख घोलप जब चल बसे तो मां के साथ चूड़ियां बेचना शुरू किया. चूड़ी बेचता रहा और फिर वह अपने चाचा के पास बरसी महाराष्ट्र में पढ़ाई करने लगा. रमेश घोलप को 12वीं की परीक्षा में 88.50 फीसदी अंक हासिल हुआ था. इसके बाद ग्रेजुएशन किया और शिक्षा के क्षेत्र में डिप्लोमा लेकर शिक्षक बन गये और अपने ही गांव में पढ़ाई शुरू करा दी. लेकिन उनको यूपीएससी का भूत चढ़ चुका था. मां ने कर्ज लेकर रमेश को परीक्षा की तैयारी के लिए पूणे भेज दिया. रमेश ने पहले प्रयास 2010 में किया, लेकिन वह असफल रहा. इसके बाद वे दोगुनी मेहतन की और दूसरे प्रयास में वर्ष 2012 में यूपीएससी परीक्षा में 287वां रैंक हासिल किया और पहली बार झारखंड कैडर के आइएएस बनने के बाद खूंटी के एसडीएम बन गये. (नीचे पढ़े पूरी रिपोर्ट)
…# वह क्या सोच रही होंगीं?’ (जब माँ मेरे ऑफिस में आयी थी) (फेसबुक पोस्ट से साभार)
”आठ बच्चों में सबसे छोटी होने के कारण वह (आइएएस रमेश घोलप की मां) सबकी ‘लाडली’ थी. घर में उसकी हर जिद पूरी करने के लिए चार बड़े भाई, तीन बहने और माता-पिता थे, यह बात वह हमेशा गर्व के साथ कहती है. ‘फिर तुमको बचपन में स्कूल में भेजकर पढ़ाया क्यों नहीं ?’ इस सवाल का उसके (मां के पास) पास कोई जवाब नहीं होता. इस बात का उसे दुख ज़रूर है पर इसके लिए वह किसी को दोषी नहीं मानती. शादी के बाद वह लगभग मायके जितने ही बड़े परिवार की ‘बड़ी बहु’ बनी थी. उससे बातचीत के क्रम में कभी भी शिकायत के सुर नहीं सुने, लेकिन लगभग 1985 में गाँव देहात में जो सामाजिक व्यवस्थाएँ थी उसके अनुरूप माता-पिता की ‘छोटी लाडली बेटी’ और ससुराल की ‘बड़ी बहु’ में जो फ़र्क़ था उसे उसने करीब से देखा था. जिस व्यक्ति से शादी हुई है, उनको शराब पीने की आदत है यह पता चलने के बाद, कई बार उस आदत के परिणाम भुगतने के बाद भी कभी उसने अपने मायके में माता-पिता को इसकी शिकायत नहीं की. ख़ुद के दुख को नज़र अंदाज़ कर परिवार के भविष्य को सोचकर वह लड़ती रही. हालात की ज़ंजीरो को तोड़कर अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए और घर चलाने के लिए ख़ुद को भी कमाई के लिए कुछ करना होगा इस सच्चाई को स्वीकार कर उसने रिश्तेदारों के विरोध के बावजूद चूड़ियां बेचने का काम शुरू किया. गांव-गांव जाकर चूड़ियां बेची. दो बच्चों को पढ़ाने और पति के बिगड़ते शारीरिक स्वास्थ्य का चिकित्सा उपचार करवाने के लिए वह परिस्थितियों से दो हाथ कर ‘मर्दानी’ की तरह लड़ती रही. पति की मृत्यु के तीसरे दिन मुझे यह कहकर कॉलेज की परीक्षा के लिए भेजा था कि ‘तुमने अपने पिता को वचन दिया था, की जब मेरा 12वी का रिजल्ट आएगा तो आपको मेरा अभिमान होगा. रिजल्ट के दिन वो जहाँ भी होंगे उनको तुझ पर पर गर्व होना चाहिए. तु पढ़ेगा तभी हम लोगों का संघर्ष समाप्त होगा.’ उस वक़्त उसने एक ‘कर्तव्य कठोर मां’ की भूमिका निभायी थी।. मेरे बड़े भाई का शिक्षक का डिप्लोमा पूर्ण हुआ था. मैं भी डिप्लोमा की पढ़ाई कर रहा था और बड़े भाई को नौकरी नहीं लग रही थी, तब बहुत लोगों ने उसे कहा की, ‘अब पढाई छोड़कर बड़े बेटे को गांव में मज़दूरी के लिए भेज दो.’ लेकिन ‘बड़ा बेटा मज़दूरी नहीं बल्कि नौकरी ही करेगा’ कह कर वह चूड़ियां बेचने के साथ साथ दूसरे गांव में भी मज़दूरी के लिए जाने लगी और बड़े बेटे को आगे की पढ़ाई के लिए शहर भेज दिया. मुझे (आइएएस रमेश घोलप) 2009 में प्राथमिक शिक्षक की नौकरी लग गयी. वर्ष 2010 में हम लोगों को रहने के लिए ख़ुद का घर नहीं था, तब मैंने टीचर की सरकारी नौकरी का इस्तीफ़ा देकर सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी करने का निर्णय लिया. उस समय भी वह मेरे निर्णय के साथ खड़ी रही.’ हम लोगों का संघर्ष और कुछ दिन रहेगा, लेकिन तुम्हारा जो सपना है उसको हासिल करने के लिये तू पढ़ाई कर’ यह कहकर मेरे ऊपर ‘विश्वास’ दिखाने वाली मेरी ‘आक्का’ (आइएएस घोलप अपनी मां को यहीं कहकर बुलाते है) और मेरे विपरित हालात यही पढ़ाई की दिनों में सबसे बड़ी प्रेरणा थी. सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी के दिनों में जब भी पढ़ाई से ध्यान विचलित होता था, तब मुझे दूसरों के खेत में जाकर मज़दूरी करने वाली मेरी मां याद आती थी. (नीचे पढ़े पूरी रिपोर्ट)
मेरे ऊपर के उसके विश्वास को सही साबित कर मैं 2012 में आइएएस (उसकी (मां) भाषा में ‘कलेक्टर’) बना. पिछले साल जून में मैंने दूसरी बार ‘कलेक्टर’ का पदभार ग्रहण किया. उसके बाद वह एक दिन ऑफिस में आयी थी. बेटे के लिए अभिमान उसके चेहरे पर साफ़ दिखायी दे रहा था. उसकी भरी हुई आंखो के देखकर मैं सोच रहा था, ‘जिले की सभी लड़कियों को शिक्षा मिलनी चाहिए इसकी ज़िम्मेदारी कलेक्टर पर होती है, यह सोचकर उसके अंदर की उस लड़की को क्या लग रहा होगा जो बचपन में शिक्षा नहीं ले पायी थी?’ अवैध शराब के उत्पादन और बिक्री रोकने के लिए हम प्रयास करते है यह सुनकर पति की शराब की आदत से जिस महिला का संसार ध्वस्त हुआ था, उसके अंदर की वह महिला क्या सोच रही होगी?, जिले के सभी सरकारी अस्पतालों में सरकार की सभी जन कल्याणकारी आरोग्य योजना एवं सुविधाएं आम लोगों तक पहुंचे इसके लिए हम प्रयास करते है यह मेरे द्वारा कहने पर, पति की बीमारी के दौरान जिस पत्नी ने सरकारी अस्पताल की अव्यवस्था एवं उदासीनता को बहुत नज़दीक से झेला था, उसके अंदर की उस पत्नी को क्या महसूस हो रहा होगा?, संघर्ष के दिनों में जब सर पर छत नहीं था, तब हम लोगों का नाम भी बीपीएल में दर्ज करकर हमको एक ‘इंदिरा आवास’ का घर दे दीजिए इस फ़रियाद को लेकर जिस महिला ने कई बार गाँव के मुखिया और हल्का कर्मचारी के ऑफिस के चक्कर काटे थे, उस महिला को अब अपने बेटे के हस्ताक्षर से जिले के आवासहीन ग़रीब लोगों को घर मिलता है यह समझने पर उसके मन में क्या विचार आ रहें होंगे?, पति की मृत्यु के बाद विधवा पेंशन स्वीकृत कराने के नाम से एक साल से ज़्यादा समय तक गांव की एक सरकारी महिलाकर्मी जिससे पैसे लेती रही थी, उस महिला के मन में आज अपना बेटा कैम्प लगाकर विधवा महिलाओं को तत्काल पेंशन स्वीकृत कराने का प्रयास करता है यह पता चलने पर क्या विचार आये होंगे?’ आईएएस बनने के बाद पिछले 6 साल में उसने मुझे कई बार कहा है, “रामू (रमेश घोलप की मां उनको इसी नाम से बुलाती है), जो हालात हमारे थे, जो दिन हम लोगों ने देखे है वैसे कई लोग यहां पर भी है. उन ग़रीब लोगों की समस्याएं पहले सुन लिया करो, उनके काम प्राथमिकता से किया करो. ग़रीब, असहाय लोगों की सिर्फ़ सिर्फ दुआएं कमाना. भगवान तुझे सब कुछ देगा.” एक बात पक्की है..’संस्कार और प्रेरणा का ऐसा विश्वविद्यालय जब घर में होता है, तब संवेदनशीलता और लोगों के लिए काम करने का जुनून ज़िंदा रखने के लिए और किसी बाहरी चीज़ की ज़रूरत नहीं होती. ‘——रमेश घोलप, आइएएस, जिला अधिकारी, कोडरमा, झारखंड