घाटशिलाः उड़िया और आदिवासी समुदाय के द्वारा चार दिवसीय रजो संक्रांति पर्व काफी धूमधाम से मनाया जा रहा है. मंगलवार के दिन सूर्य को मिथुन राशि में प्रवेश करने के कारण कई जगहों पर इसे मिथुन संक्रांति के रूप में भी मनाया जाता है. उड़िया और आदिवासी समाज इसे रजो संक्रांति के रूप में मनाते हैं. इस पर्व की तिथि से ही आदिवासी समाज के लोग मकर पर्व की गिनती करते हैं. इस पर्व को कृषि पर्व भी कहा जाता है. जिसमें मानसून की पहली बारिश जिसे कृषि कार्य के लिए उत्तम माना जाता है, उसका स्वागत आदिवासी समाज के लोग पर्व मनाकर करते हैं. इस पर्व का नाम महिलाओं में होने वाली रजोनिवृति क्रिया को आधार मानकर रखा गया है, जिस कारण इसका नाम रजो संक्रांति पड़ा है. इस पर्व में आदिवासी समुदाय के लोग भू-देवी यानी की धरती माता की विशेष पूजा अर्चना करते हैं. चार दिनों तक चलने वाली इस त्यौहार में महिलाएं और कुंवारी लड़कियां हिस्सा लेती है , इस त्यौहार को अच्छी फसल और अच्छे वर की कामना को लेकर कई तरह से धरती माता और कुंवारी कन्याओं की पूजा की जाती है और यह पर्व मनाया जाता है. इस पर्व को लेकर आदिवासी समाज के लोगों में काफी उत्साह का माहौल रहता है. पर्व के पहले दिन मंगलवार की सुबह जल्दी उठकर महिलाएं स्नान करती है और अगले दो दिनों तक स्नान नहीं करती फिर चौथे दिन पवित्र स्नान करके भू-देवी यानी की धरती माता की पूजा अर्चना की जाती है. इस अवसर पर धरती माता को चंदन , सिंदूर फूल, कपड़े आदि दान की जाती है और आज के दिन आदिवासी समुदाय के लोगों के द्वारा धरती माता को आराम करने दिए जाता है. जिसके चलते खेती कार्य में लगने वाले हल को धरती के संपर्क से दूर ऊपर उठाकर घरों में लटका दिया जाता है. आज के दिन ग्रामीणों के द्वारा किसी भी तरह के कृषि कार्य या अन्य कार्य जो धरती से जुड़ा हुआ हो वह पूरी तरह से वर्जित होती है. मान्यता है की जिस तरह से महिलाएं रजोनिवृति प्रक्रिया के बाद गर्भ धारण कर परिवार में सुख और उल्लास लाती है और वंश को बढ़ाती है उसी तरह धरती माता भी इन दिनों गर्भ धारण कर हमें अच्छी फसल देकर हमारे घर को अनाज से भर देती है जिससे हमारा धन –धान्य परिपूर्ण होता है.(नीचे भी पढ़ें)
इस पर्व को मनाने के लिए समुदाय के लोग पिछले दस दिनों से आदिवासी महिला-पुरुषों द्वारा जोर शोर से तैयारियां की गई है. पर्व की तैयारी को लेकर जलावन के लिए जंगल से सुखी लकड़ी चुनकर लायी जाती है,साल के पत्ते तोड़कर लाये जाते हैं,जंगल और पहाड़ों से जड़ी-बूटी इक्कट्ठा करके इसका हड़िया पेय पदार्थ बनाया जाता है,चावल को धो कर सुखाकर इसे मीलों में पिसाकर चावल की गुंडी तैयार की जाती है और अपने अपने क्षमता और जरुरत के अनुसार मांश- मछली का भी प्रबंध किया जाता है और चावल की गुंडी और मांस को मिलकर आदिवासी समाज के प्रमुख लजीज पकवान पीठा और लेटो तैयार किया जाता है.इस दिन इन लजीज पकवानों से अपने पूर्वजों को याद कर उन्हें भी अर्पित किया करते हैं. रजो पर्व को लेकर घाटशिला अनुमंडल के विभिन्न गांव और मुसाबनी प्रखंड के आदिवासी बहुल गांव कुमिरमुड़ी में भी आदिवासी समुदायों के लोगों द्वारा इस पर्व को धूम धाम से मनायी जा रही है. कल से लोग अपने अपने खेतों में हल बैल लेकर उतरेंगे और इस उम्मीद के साथ कृषि कार्य में जुट जायेंगे की धरती माता इस बार भी हमें अच्छी पैदावार देगी और गांव घरों में खुशहाली आएगी.