रांची/जमशेदपुर : वैसे राजनीति ऐसी ही होता है. सत्ता में जो शिखर पर पहुंचता है, वह अपने आसपास की चीजों को भूल जाता है और फिर से जमीन को छोड़ देता है, अपने आगे किसी को नहीं समझता और अहंकार ऐसा कि अपने को भी पराया बना लेता है. ऐसी ही कुछ हालात गुजर रहा है भाजपा के पुराने नेता और पूर्व मुख्यमंत्री रघुवर दास के साथ. जमीन से जुड़े इस नेता ने 30 साल में जितना कमाया, वह मुख्यमंत्रित्वकाल में गंवा दिया. पांच साल तक सरकार में रहते हुए उनको ऐसा रुतबा चढ़ा, सत्ता का ऐसा नशा चढ़ा कि उनको लगा ही नहीं कि फिर कभी सत्ता से वे दूर भी होंगे. सत्ता के शीर्ष पर रहते हुए नीचे वाले नेताओं, विधायकों, सांसदों, सहयोगी पार्टियों के नेता या पत्रकार-छायाकार को ही वे तुच्छ समझने की भूल कर बैठे, जिसका खामियाजा उनको झारखंड विधानसभा चुनाव में उठाना पड़ा. यह राज्य का पहला ऐसा चुनाव भाजपा ने देखा होगा, जिसमें बड़ा मुद्दा पानी और बिजली, सड़क जैसे मूलभूत सुविधाओं के साथ-साथ ”मुख्यमंत्री का व्यवहार” था. इस मुद्दे पर चुनाव लड़ते हुए झामुमो, कांग्रेस और राजद को बड़ी जीत मिली तो भाजपा को करारी हार मिली. खुद मुख्यमंत्री रघुवर दास ने अपनी ही भाजपा के नेता रह चुके सरयू राय से चुनाव हार गये. आपको बता दें कि सरयू राय का टिकट काटने में खुद रघुवर दास ने विटो पावर लगा दिया था और आज रघुवर दास खुद न तो विधायक है, न पार्टी के कोई बड़े पद पर है और न ही कुछ है. हालात यह है कि राज्यसभा में जाने के लिए रघुवर दास ने काफी कड़ी मेहनत की. चाही कि राज्यसभा में भाजपा अपना उम्मीदवार रघुवर दास को ही बना दें, लेकिन यह संभव नहीं हो पाया. दीपक प्रकाश को भाजपा ने ‘मजबूरी’ में अपना प्रत्याशी बनाया. इसकी बड़ी वजह यह है कि भाजपा के ही दस विधायकों ने पार्टी आलाकमान को लिखकर दे दिया था कि वे लोग किसी भी हाल में रघुवर दास को प्रत्याशी बनने पर वोट नहीं भी दे सकते है. भाजपा के ही विधायकों के बगावती तेवर के साथ ही आजसू के नेता सुदेश महतो ने भी कह दिया था कि यह संभव नहीं है कि रघुवर दास को वे लोग समर्थन करें. ऐसे में इस बगावत से भाजपा सकते में आ गयी और दीपक प्रकाश भाजपा के लिए मजबूरी का प्यार बन गये और रघुवर दास की टिकट कट गयी. दरअसल, सुदेश महतो और आजसू को सत्ता में रहते हुए रघुवर दास ने कभी भी अपने साथ नहीं लिया. सुदेश महतो और उनकी पार्टी के विधायक या नेता मिलने के लिए तरसते थे जबकि वे लोग भी सत्ताधारी थे. खुद मुख्यमंत्री रहते हुए रघुवर दास से सुदेश महतो की काफी कम मुलाकात हुई थी. इसके अलावा भाजपा के ही विधायकों को मुख्यमंत्री रघुवर दास ने कभी सटने नहीं दिया. पत्रकारों और छायाकारों को तो दुत्कारना रघुवर दास के लिए आम बात हो चुकी थी, जिसका फीडबैक भाजपा को मिली और अंतत: उनका टिकट कट गया. कल तक जो व्यक्ति दूसरे का टिकट काटते थे, दूसरे को टिकट दिलाते थे, आज उनको ही एक राज्यसभा के चुनाव का टिकट के लिए ही विरोध झेलना पड़ा, उससे बड़ी बात और क्या हो सकती है. यहीं है सत्ता का खेल, सत्ता पर रहते हुए अगर उपरोक्त गलतियां नहीं की गयी होती तो शायद रघुवर दास ”बेदाग” मुख्यमंत्री भी होते और राज्यसभा का टिकट तो उनके सामने छोटी ही चीज होती.